Thursday, April 5, 2012

"गरीबी रेखा से ऊपर रिक्शा वाला"

घर के सामने चौक पर
              खड़ा बूढ़ा रिक्शावाला
सुबह-सुबह चाय की गुमटी पर
              अख़बार पलट रहा है
सुबह सैर से आते वक़्त
               पूछ बैठता हूँ उसका हाल.
ठंडी आँहें भरता है
                चाय की एक गर्म चुस्की गुडककर
फिर अचानक खो जाता है यादों में
                13 -14 साल का था
जब आया था इस शहर में
                 तब सारा शहर रिक्शों में
ही चला करता था
                  तब क्या शान होते थे हमारें
हर कोई सवार होने को बेताब
                   हमारे इस शाही सवारी में
इस शहर के करिनें से बिछे
                   सड़कों के तब हम ही
रजा हुआ करते थे
                   पर धीरे-धीरे
जैसे-जैसे उम्र गुजरी
                  शहर भी फैलता गया
सड़कें चौड़ी होती गई
                  अब सड़कें टहलती हुई नहीं गुजरती थी
अब सड़कें हांफते हुए
                  भागने लगी थी
इन चौड़ी तेज सडको पर
                  हमारे रिक्शे तेजी से
सिमटने लगे थे
                   हम अब बोझ बनने लगे थे
सड़कों के लिए
                 हम तेजी से भाग नहीं सकते थे
जिन बच्चों को स्कुल छोड़ा था
                 अपनी कंधो पर बिठाकर
वो तेजी से मोटर-कार में गुज़रते हुए
                अक्सर गलियां निकला करते है
कि हम सड़कों के स्पीड-ब्रेकर है
                धीरे-धीरे हम किनारें किये जा रहे है 
कहते है अब हमें छोड़ना पड़ेगा इसे
               अब इस उम्र में
क्या करूँगा मैं?
                 जबकि पूरी उम्र गुजर गई
इस रिक्शे को ढोते-ढोते.
                 पर हाँ ख़ुशी कि बात
सिर्फ इतनी सी है कि
                सरकार आज कहती है अख़बार में.
कि मैं अमीर हो गया हूँ
               आखिर 30 रूपये रोज से ज्यादा कमाता हूँ.
कल से शायद बंद हो जायेंगे
              मेरे लिए राशन दुकान के दरवाजे.
सड़कों से पहले ही
               निकाल दिया गया हूँ,
अब  इस बुढ़ापे में
               अपनी अमीरी को ढोना
पता नहीं कितना भारी पड़ेगा मुझे.

प्रवीण चौबे                 दिनांक- 22 /03 /2012 

               
"एक ख़त गौरैया के नाम"

मैं छोटा था तब
            जब तुम हर दिन आती थी,
मेरे घर के आँगन में
            दिन-भर चीं-चीं, चीं-चीं,
आसमान सर पर
             उठाकर रखती थी,
माँ जब गेहूं-चावल धोकर
             फैला देती थी आँगन में
सुखाने के वास्ते
              तुम न जाने कहाँ से
ढेरों की संख्यां में
              आकर चट करने लगती थी
माँ का गेहूं-चांवल
              कई बार तो माँ मुझे
नहाने के बाद, डंडा लेकर
              बिठाये रखती थी घंटों
उस खाट के पास
                जिसमे फैली होती थी अनाज के दानें.
तुम सब अक्सर
               सुबह-सुबह अभी जब
दिन निकल ही रहा होता था
                मेरी खिड़की के बाहर
आँगन के पेड़ पर
                कितना उधम मचाती थी.
पर समय न जाने कहाँ उड़ गया,
                तुम्हारी ही तरह पंख लगाकर.
अब सुनता हूँ तुम धीरे-धीरे
                 लुप्त  रहीं हो ?
या शायद हो चुकी हो?
                 मुझे भी तो दिखी नहीं
 इधर कई वर्षों से?
                 बदलते वक़्त का बदलता माहौल
शायद रास नहीं आया तुम्हें?
                 तुम्हें शायद पता न हो
मेरे अन्दर भी काफी कुछ
                 खतम हो गया है
बदलते वक़्त का बदलता माहौल में
                  आस्तित्व सिर्फ तुम्हारा ही नहीं संकट में
तुम शायद मुझे भी कभी देखो तो
                  पहचान नहीं पाओगी
मैं भी अब सिमटा हुआ हूँ
                 सिर्फ कुछ कतरों-कतरों में
बदलते वक़्त का क्रूर पंजा
                 भला नन्हीं जानों को कब बक्श्ता है?
तुम शायद खतम हो चुकी हो
                 पर मैं भी भला कहाँ बचा हूँ?

(गौरैया एक घरेलु चिड़िया है जिसका की आस्तित्व संकट में  है )

प्रवीण चौबे                  दिनांक - 22 /03 /2012
           
        


"बहस व्यक्तियों पर हो या मुद्दों पर"

                          अभी पिछले दिनों दो बड़ी घटनाएँ हुई, जिनसे भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर, उठे बहस को एक नया आयाम मिला. मैं सबसे पहले बात करूँगा इनमे से एक "अन्ना-आन्दोलन" का.
                            भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए 'जन लोक पल बिल' की मांग कर रहा "अन्ना-आन्दोलन" इधर पिछले कुछ दशकों में, हिंदुस्तान के  सबसे अदभुत आन्दोलन के रूप में ख्याति पाई.
एक ऐसा जन-आन्दोलन जिसे व्यापक रूप से, स्वस्फूर्त जन समर्थन मिला और इसी वजह से, इस आन्दोलन ने, भारतीय ब्यवस्था के  केंद्र को भी मजबूर कर दिया कि वे उनकी बातो को सुने और इस विषय  पर कुछ प्रभावी कदम उठायें.
                            जाहिर है की इस रूप में यह एक, बड़ा प्रभावी और सकारात्मक आन्दोलन रहा जिसने, भ्रष्टाचार से त्रस्त, आम भारतीय जन-मानस के अन्दर उम्मीद की एक किरण जगाई.लेकिन इसके साथ-ही-साथ शुरू हो गया, इस आन्दोलन को बदनाम करने का दौर. "जन लोक पाल कानून के माध्यम से, अन्ना-आन्दोलन ने भ्रष्टाचार का जो गंभीर मुद्दा उठाया था, उस मुद्दे को पीछे दकेलने की कोशिश भी शुरू की गई. आन्दोलन से जुड़े लोगो के निजी जीवन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गए, उनके चरित्र और नैतिकता पर सवाल उठाये गए, उन तमाम लोगो को बदनाम करने की एक मुहीम सी शुरू हो गई और इस तरह एक गंभीर और ज्वलंत मुद्दे पर बजाय इसके की एक उपयोगी बहस हो और समस्या के जड़ तक पहुच कर कोई कारगर समाधान ढूढने की कोशिश की जाये, हुआ यह की आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों को निशाने पर ले लिया गया, और उन पर ब्याक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये पुरे मुद्दे को ही उलझाने और भटकने की कोशिश की गई.
                          आज के हमारे भारतीय समाज का, सबसे बड़ा "वैचारिक संकट", यही पर से शुरू होता है. वैचारिक शुन्यता का यह दौर बेहद डरावना है. क्या ये सच नहीं है किऐसा करके हम बड़े और गंभीर सवालो से अपना मुह चुरा रहे है? असली सवाल यह है कि क्या व्यक्ति अहम् है या मुद्दे?
हम व्यक्तियों कि आलोचना करके आखिर कब तक, समाज को गहरे तक प्रभावित करने वाली असली मुद्दों से, अपना ध्यान भटकते रहेंगे?
                           ठीक इसी तरह की अत्यंत गंभीर घटना, पिछले दिनों तब हमारे सामने आई जब भारत के थल सेना अध्यक्ष द्वारा, सेना की तैयारियो के विषय में प्रधान मंत्री को लिखा पत्र, मिडिया में  लीक हो गया . इस पत्र में सेना अध्यक्ष ने जो मुद्दे उठाये थे, वो काफी गंभीर किस्म के थे क्योकि उनका सम्बन्ध भारत के आंतरिक और बाह्य सुरक्षा से था. इस पत्र का असली मुद्दा जो आम हिन्दुस्तानी के लिए अहम् था और ज्यादा मायने रखता था, वह ये था कि "क्या सचमुच में, भारतीय सेना के पास उम्दा किस्म के रक्षा उपकरणों कि भरी कमी है? और इससे क्या सेना की तैयारियों में  फर्क पड़ रहा  है? क्या हमारे समाज के अन्य क्षेत्रो के साथ-साथ, सेना में भी भ्रष्टाचार की जड़े गहरी हो गई है , जिसकी वजह से गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा, घटिया किस्म के उपकरणों की, महगी  दामों  में खरीद पर, खर्च किया जा रहा है? 
                              अगर देश का सेना अध्यक्ष इन बातो की तरफ ध्यान दिलाये तो निश्चित रूप से यह बेहद गंभीर मुद्दा है, जिस पर व्यापक विचार-विमर्श  करके, कोई ठोस हल निकला जाना चाहिए.
लेकिन बजाय इसके हुआ यह कि फिर से एक बार आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. कुछ लोगो ने इसे संवेंदनशील मुद्दा बता कर इससे हाथ झाड़ने कि कोशिश की, तो किसी ने इसे सेना प्रमुख  के  निजी महत्वाकांक्षाओं से उपजा विवाद बता दिया, किसी को इस बात की ज्यादा चिंता थी कि आखिर यह पत्र लीक कैसे हो गया? तो किसी ने सेना प्रमुख को ही हटाने कि मांग कर डाली.
                              आखिर में सवाल फिर वही कि  हमारी अपनी प्राथमिकता क्या है? "व्यक्ति या विषय". व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए सेना प्रमुख महत्वपूर्ण है या उनके द्वारा उठाये गए मुद्दे ? 
हमें अपना ध्यान किस और लगाना चाहिए? हमारा सीधा सा मानना है  कि व्यक्तियों को निशाना मत बनाइयें बल्कि उनके द्वारा उठाये गए गंभीर मुद्दों को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाइए .
                                 जो समाज अपने समय के ज्वलंत मुद्दों से अपना जी चुराता है, वह समाज कभी भी श्रेष्ठता के ऊँचे स्तरों पर अपने को स्थापित नहीं कर सकता. अगर वाकई हमें अपने आपको विश्व-मानचित्र पर एक श्रेष्ठ शक्ति के रूप में स्थापित करना है, तो हमें अपने समय कि कमियों और चुनौतियों से जूझना होगा और उसका ईमानदारी से हल भी ढूँढना होगा. व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये, गंभीर मुद्दों को भटकने कि कोशिश, भले ही राजनैतिक रूप से फायदे का विषय हो लेकिन अंततः देश और समाज के सेहत के लिए इसका असर बेहद बुरा होगा इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती.

प्रवीण चौबे                                                                              दिनांक-05 /04 /2012
 

Saturday, February 7, 2009

बुद्धा का देश और शान्ति का संदेस

बुद्ध का देस और शान्ति का संदेश

आज एक तरफ़ जहाँ दुनिया में चारो ओर हिंसा का तालिबानी आतंक है,

धर्मं,नसल,जाती भाषा,छेत्र, के नाम पर हर तरफ़ हर जगह पर नफरत की आग लगाए जा रहें है वही आज दिनांक ०८-०२-२००९ को मुंबई के प्रतिभा प्रतिभा प्रतिभादेवी सिंह देवी बनाये गए पेगोडा को भारत की रास्ट्रपति महामहिम प्रतिभा देवी सिंग पाटिल जी ने राष्ट्र को समर्पित किया, शान्ति और ध्यान का संदेश देने वाला यह पेगोडा कई मायनो मैं खास है, यह स्थापत्य कला का एक बेजोड़ नमूना है, एक साथ इसमे १०००० लोग ध्यान कर सकते है, जयपुरी पत्थरों से बने इस विशाल पगोडे के अन्दर विशाल छत को सहारा देने के लिए एक भी खम्भे का इस्तेमाल नही किया गया है,
सबसे बड़ी बात इसके बनने की टाइमिंग की है, एक ऐसे समय मैं जबकि पुरी दुनिया हिंसा से निपटने के लिए हिंसा का सहारा ले रही है, भारत मैं अपनी महानपरम्परा के अनुरूप शान्ति के प्रचार के नए प्रयोग हो रहें है, मुंबई मैं बना यह महान पेगोडा उसी प्रयोग का हिस्सा है,
तो हमें उम्मीद करना चाहिए की मुंबई से निकलती विपस्याना ध्यान की ये गूँज मुंबई को आतंक का बंधक बनाने की कोशिश कराने वालो तक भी पहुचेगी आमीन।
कृपया अपनी प्रतिक्रियाओ से मुझे अवगत कराये , आपका प्रवीण

आज हो कुछ खास बात

कुछ मेरे एहसास , कुछ है आपके भी पास,
क्यूँ न करें एक नई शुरुवात।
मन जब भरने लगे ,
घायल हों जब जज्बात।
हुआ अँधेरा रोशन चहुँ ओर,
उजाले को मिले न कोइ ठौर.
एअसें में जीने की कोई सूरत निकालें हम,
आओ मिलकर नइ राह बनाले हम.
एहसास एक कोशिश है रोशनी पाने की,
एहसास एक जरिया है दिया जलाने की।
बढाओ हाथ की उम्मीद कायम हो,
बढाओ बात की हौसला हमारा जीवन हो.