"एक ख़त गौरैया के नाम"
मैं छोटा था तब
जब तुम हर दिन आती थी,
मेरे घर के आँगन में
दिन-भर चीं-चीं, चीं-चीं,
आसमान सर पर
उठाकर रखती थी,
माँ जब गेहूं-चावल धोकर
फैला देती थी आँगन में
सुखाने के वास्ते
तुम न जाने कहाँ से
ढेरों की संख्यां में
आकर चट करने लगती थी
माँ का गेहूं-चांवल
कई बार तो माँ मुझे
नहाने के बाद, डंडा लेकर
बिठाये रखती थी घंटों
उस खाट के पास
जिसमे फैली होती थी अनाज के दानें.
तुम सब अक्सर
सुबह-सुबह अभी जब
दिन निकल ही रहा होता था
मेरी खिड़की के बाहर
आँगन के पेड़ पर
कितना उधम मचाती थी.
पर समय न जाने कहाँ उड़ गया,
तुम्हारी ही तरह पंख लगाकर.
अब सुनता हूँ तुम धीरे-धीरे
लुप्त रहीं हो ?
या शायद हो चुकी हो?
मुझे भी तो दिखी नहीं
इधर कई वर्षों से?
बदलते वक़्त का बदलता माहौल
शायद रास नहीं आया तुम्हें?
तुम्हें शायद पता न हो
मेरे अन्दर भी काफी कुछ
खतम हो गया है
बदलते वक़्त का बदलता माहौल में
आस्तित्व सिर्फ तुम्हारा ही नहीं संकट में
तुम शायद मुझे भी कभी देखो तो
पहचान नहीं पाओगी
मैं भी अब सिमटा हुआ हूँ
सिर्फ कुछ कतरों-कतरों में
बदलते वक़्त का क्रूर पंजा
भला नन्हीं जानों को कब बक्श्ता है?
तुम शायद खतम हो चुकी हो
पर मैं भी भला कहाँ बचा हूँ?
(गौरैया एक घरेलु चिड़िया है जिसका की आस्तित्व संकट में है )
प्रवीण चौबे दिनांक - 22 /03 /2012
मैं छोटा था तब
जब तुम हर दिन आती थी,
मेरे घर के आँगन में
दिन-भर चीं-चीं, चीं-चीं,
आसमान सर पर
उठाकर रखती थी,
माँ जब गेहूं-चावल धोकर
फैला देती थी आँगन में
सुखाने के वास्ते
तुम न जाने कहाँ से
ढेरों की संख्यां में
आकर चट करने लगती थी
माँ का गेहूं-चांवल
कई बार तो माँ मुझे
नहाने के बाद, डंडा लेकर
बिठाये रखती थी घंटों
उस खाट के पास
जिसमे फैली होती थी अनाज के दानें.
तुम सब अक्सर
सुबह-सुबह अभी जब
दिन निकल ही रहा होता था
मेरी खिड़की के बाहर
आँगन के पेड़ पर
कितना उधम मचाती थी.
पर समय न जाने कहाँ उड़ गया,
तुम्हारी ही तरह पंख लगाकर.
अब सुनता हूँ तुम धीरे-धीरे
लुप्त रहीं हो ?
या शायद हो चुकी हो?
मुझे भी तो दिखी नहीं
इधर कई वर्षों से?
बदलते वक़्त का बदलता माहौल
शायद रास नहीं आया तुम्हें?
तुम्हें शायद पता न हो
मेरे अन्दर भी काफी कुछ
खतम हो गया है
बदलते वक़्त का बदलता माहौल में
आस्तित्व सिर्फ तुम्हारा ही नहीं संकट में
तुम शायद मुझे भी कभी देखो तो
पहचान नहीं पाओगी
मैं भी अब सिमटा हुआ हूँ
सिर्फ कुछ कतरों-कतरों में
बदलते वक़्त का क्रूर पंजा
भला नन्हीं जानों को कब बक्श्ता है?
तुम शायद खतम हो चुकी हो
पर मैं भी भला कहाँ बचा हूँ?
(गौरैया एक घरेलु चिड़िया है जिसका की आस्तित्व संकट में है )
प्रवीण चौबे दिनांक - 22 /03 /2012
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