"गरीबी रेखा से ऊपर रिक्शा वाला"
घर के सामने चौक पर
खड़ा बूढ़ा रिक्शावाला
सुबह-सुबह चाय की गुमटी पर
अख़बार पलट रहा है
सुबह सैर से आते वक़्त
पूछ बैठता हूँ उसका हाल.
ठंडी आँहें भरता है
चाय की एक गर्म चुस्की गुडककर
फिर अचानक खो जाता है यादों में
13 -14 साल का था
जब आया था इस शहर में
तब सारा शहर रिक्शों में
ही चला करता था
तब क्या शान होते थे हमारें
हर कोई सवार होने को बेताब
हमारे इस शाही सवारी में
इस शहर के करिनें से बिछे
सड़कों के तब हम ही
रजा हुआ करते थे
पर धीरे-धीरे
जैसे-जैसे उम्र गुजरी
शहर भी फैलता गया
सड़कें चौड़ी होती गई
अब सड़कें टहलती हुई नहीं गुजरती थी
अब सड़कें हांफते हुए
भागने लगी थी
इन चौड़ी तेज सडको पर
हमारे रिक्शे तेजी से
सिमटने लगे थे
हम अब बोझ बनने लगे थे
सड़कों के लिए
हम तेजी से भाग नहीं सकते थे
जिन बच्चों को स्कुल छोड़ा था
अपनी कंधो पर बिठाकर
वो तेजी से मोटर-कार में गुज़रते हुए
अक्सर गलियां निकला करते है
कि हम सड़कों के स्पीड-ब्रेकर है
धीरे-धीरे हम किनारें किये जा रहे है
कहते है अब हमें छोड़ना पड़ेगा इसे
अब इस उम्र में
क्या करूँगा मैं?
जबकि पूरी उम्र गुजर गई
इस रिक्शे को ढोते-ढोते.
पर हाँ ख़ुशी कि बात
सिर्फ इतनी सी है कि
सरकार आज कहती है अख़बार में.
कि मैं अमीर हो गया हूँ
आखिर 30 रूपये रोज से ज्यादा कमाता हूँ.
कल से शायद बंद हो जायेंगे
मेरे लिए राशन दुकान के दरवाजे.
सड़कों से पहले ही
निकाल दिया गया हूँ,
अब इस बुढ़ापे में
अपनी अमीरी को ढोना
पता नहीं कितना भारी पड़ेगा मुझे.
प्रवीण चौबे दिनांक- 22 /03 /2012
घर के सामने चौक पर
खड़ा बूढ़ा रिक्शावाला
सुबह-सुबह चाय की गुमटी पर
अख़बार पलट रहा है
सुबह सैर से आते वक़्त
पूछ बैठता हूँ उसका हाल.
ठंडी आँहें भरता है
चाय की एक गर्म चुस्की गुडककर
फिर अचानक खो जाता है यादों में
13 -14 साल का था
जब आया था इस शहर में
तब सारा शहर रिक्शों में
ही चला करता था
तब क्या शान होते थे हमारें
हर कोई सवार होने को बेताब
हमारे इस शाही सवारी में
इस शहर के करिनें से बिछे
सड़कों के तब हम ही
रजा हुआ करते थे
पर धीरे-धीरे
जैसे-जैसे उम्र गुजरी
शहर भी फैलता गया
सड़कें चौड़ी होती गई
अब सड़कें टहलती हुई नहीं गुजरती थी
अब सड़कें हांफते हुए
भागने लगी थी
इन चौड़ी तेज सडको पर
हमारे रिक्शे तेजी से
सिमटने लगे थे
हम अब बोझ बनने लगे थे
सड़कों के लिए
हम तेजी से भाग नहीं सकते थे
जिन बच्चों को स्कुल छोड़ा था
अपनी कंधो पर बिठाकर
वो तेजी से मोटर-कार में गुज़रते हुए
अक्सर गलियां निकला करते है
कि हम सड़कों के स्पीड-ब्रेकर है
धीरे-धीरे हम किनारें किये जा रहे है
कहते है अब हमें छोड़ना पड़ेगा इसे
अब इस उम्र में
क्या करूँगा मैं?
जबकि पूरी उम्र गुजर गई
इस रिक्शे को ढोते-ढोते.
पर हाँ ख़ुशी कि बात
सिर्फ इतनी सी है कि
सरकार आज कहती है अख़बार में.
कि मैं अमीर हो गया हूँ
आखिर 30 रूपये रोज से ज्यादा कमाता हूँ.
कल से शायद बंद हो जायेंगे
मेरे लिए राशन दुकान के दरवाजे.
सड़कों से पहले ही
निकाल दिया गया हूँ,
अब इस बुढ़ापे में
अपनी अमीरी को ढोना
पता नहीं कितना भारी पड़ेगा मुझे.
प्रवीण चौबे दिनांक- 22 /03 /2012
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