"बहस व्यक्तियों पर हो या मुद्दों पर"
अभी पिछले दिनों दो बड़ी घटनाएँ हुई, जिनसे भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर, उठे बहस को एक नया आयाम मिला. मैं सबसे पहले बात करूँगा इनमे से एक "अन्ना-आन्दोलन" का.
भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए 'जन लोक पल बिल' की मांग कर रहा "अन्ना-आन्दोलन" इधर पिछले कुछ दशकों में, हिंदुस्तान के सबसे अदभुत आन्दोलन के रूप में ख्याति पाई.
एक ऐसा जन-आन्दोलन जिसे व्यापक रूप से, स्वस्फूर्त जन समर्थन मिला और इसी वजह से, इस आन्दोलन ने, भारतीय ब्यवस्था के केंद्र को भी मजबूर कर दिया कि वे उनकी बातो को सुने और इस विषय पर कुछ प्रभावी कदम उठायें.
जाहिर है की इस रूप में यह एक, बड़ा प्रभावी और सकारात्मक आन्दोलन रहा जिसने, भ्रष्टाचार से त्रस्त, आम भारतीय जन-मानस के अन्दर उम्मीद की एक किरण जगाई.लेकिन इसके साथ-ही-साथ शुरू हो गया, इस आन्दोलन को बदनाम करने का दौर. "जन लोक पाल कानून के माध्यम से, अन्ना-आन्दोलन ने भ्रष्टाचार का जो गंभीर मुद्दा उठाया था, उस मुद्दे को पीछे दकेलने की कोशिश भी शुरू की गई. आन्दोलन से जुड़े लोगो के निजी जीवन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गए, उनके चरित्र और नैतिकता पर सवाल उठाये गए, उन तमाम लोगो को बदनाम करने की एक मुहीम सी शुरू हो गई और इस तरह एक गंभीर और ज्वलंत मुद्दे पर बजाय इसके की एक उपयोगी बहस हो और समस्या के जड़ तक पहुच कर कोई कारगर समाधान ढूढने की कोशिश की जाये, हुआ यह की आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों को निशाने पर ले लिया गया, और उन पर ब्याक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये पुरे मुद्दे को ही उलझाने और भटकने की कोशिश की गई.
आज के हमारे भारतीय समाज का, सबसे बड़ा "वैचारिक संकट", यही पर से शुरू होता है. वैचारिक शुन्यता का यह दौर बेहद डरावना है. क्या ये सच नहीं है किऐसा करके हम बड़े और गंभीर सवालो से अपना मुह चुरा रहे है? असली सवाल यह है कि क्या व्यक्ति अहम् है या मुद्दे?
हम व्यक्तियों कि आलोचना करके आखिर कब तक, समाज को गहरे तक प्रभावित करने वाली असली मुद्दों से, अपना ध्यान भटकते रहेंगे?
ठीक इसी तरह की अत्यंत गंभीर घटना, पिछले दिनों तब हमारे सामने आई जब भारत के थल सेना अध्यक्ष द्वारा, सेना की तैयारियो के विषय में प्रधान मंत्री को लिखा पत्र, मिडिया में लीक हो गया . इस पत्र में सेना अध्यक्ष ने जो मुद्दे उठाये थे, वो काफी गंभीर किस्म के थे क्योकि उनका सम्बन्ध भारत के आंतरिक और बाह्य सुरक्षा से था. इस पत्र का असली मुद्दा जो आम हिन्दुस्तानी के लिए अहम् था और ज्यादा मायने रखता था, वह ये था कि "क्या सचमुच में, भारतीय सेना के पास उम्दा किस्म के रक्षा उपकरणों कि भरी कमी है? और इससे क्या सेना की तैयारियों में फर्क पड़ रहा है? क्या हमारे समाज के अन्य क्षेत्रो के साथ-साथ, सेना में भी भ्रष्टाचार की जड़े गहरी हो गई है , जिसकी वजह से गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा, घटिया किस्म के उपकरणों की, महगी दामों में खरीद पर, खर्च किया जा रहा है?
अगर देश का सेना अध्यक्ष इन बातो की तरफ ध्यान दिलाये तो निश्चित रूप से यह बेहद गंभीर मुद्दा है, जिस पर व्यापक विचार-विमर्श करके, कोई ठोस हल निकला जाना चाहिए.
लेकिन बजाय इसके हुआ यह कि फिर से एक बार आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. कुछ लोगो ने इसे संवेंदनशील मुद्दा बता कर इससे हाथ झाड़ने कि कोशिश की, तो किसी ने इसे सेना प्रमुख के निजी महत्वाकांक्षाओं से उपजा विवाद बता दिया, किसी को इस बात की ज्यादा चिंता थी कि आखिर यह पत्र लीक कैसे हो गया? तो किसी ने सेना प्रमुख को ही हटाने कि मांग कर डाली.
आखिर में सवाल फिर वही कि हमारी अपनी प्राथमिकता क्या है? "व्यक्ति या विषय". व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए सेना प्रमुख महत्वपूर्ण है या उनके द्वारा उठाये गए मुद्दे ?
हमें अपना ध्यान किस और लगाना चाहिए? हमारा सीधा सा मानना है कि व्यक्तियों को निशाना मत बनाइयें बल्कि उनके द्वारा उठाये गए गंभीर मुद्दों को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाइए .
जो समाज अपने समय के ज्वलंत मुद्दों से अपना जी चुराता है, वह समाज कभी भी श्रेष्ठता के ऊँचे स्तरों पर अपने को स्थापित नहीं कर सकता. अगर वाकई हमें अपने आपको विश्व-मानचित्र पर एक श्रेष्ठ शक्ति के रूप में स्थापित करना है, तो हमें अपने समय कि कमियों और चुनौतियों से जूझना होगा और उसका ईमानदारी से हल भी ढूँढना होगा. व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये, गंभीर मुद्दों को भटकने कि कोशिश, भले ही राजनैतिक रूप से फायदे का विषय हो लेकिन अंततः देश और समाज के सेहत के लिए इसका असर बेहद बुरा होगा इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती.
प्रवीण चौबे दिनांक-05 /04 /2012
अभी पिछले दिनों दो बड़ी घटनाएँ हुई, जिनसे भारतीय सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर, उठे बहस को एक नया आयाम मिला. मैं सबसे पहले बात करूँगा इनमे से एक "अन्ना-आन्दोलन" का.
भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए 'जन लोक पल बिल' की मांग कर रहा "अन्ना-आन्दोलन" इधर पिछले कुछ दशकों में, हिंदुस्तान के सबसे अदभुत आन्दोलन के रूप में ख्याति पाई.
एक ऐसा जन-आन्दोलन जिसे व्यापक रूप से, स्वस्फूर्त जन समर्थन मिला और इसी वजह से, इस आन्दोलन ने, भारतीय ब्यवस्था के केंद्र को भी मजबूर कर दिया कि वे उनकी बातो को सुने और इस विषय पर कुछ प्रभावी कदम उठायें.
जाहिर है की इस रूप में यह एक, बड़ा प्रभावी और सकारात्मक आन्दोलन रहा जिसने, भ्रष्टाचार से त्रस्त, आम भारतीय जन-मानस के अन्दर उम्मीद की एक किरण जगाई.लेकिन इसके साथ-ही-साथ शुरू हो गया, इस आन्दोलन को बदनाम करने का दौर. "जन लोक पाल कानून के माध्यम से, अन्ना-आन्दोलन ने भ्रष्टाचार का जो गंभीर मुद्दा उठाया था, उस मुद्दे को पीछे दकेलने की कोशिश भी शुरू की गई. आन्दोलन से जुड़े लोगो के निजी जीवन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गए, उनके चरित्र और नैतिकता पर सवाल उठाये गए, उन तमाम लोगो को बदनाम करने की एक मुहीम सी शुरू हो गई और इस तरह एक गंभीर और ज्वलंत मुद्दे पर बजाय इसके की एक उपयोगी बहस हो और समस्या के जड़ तक पहुच कर कोई कारगर समाधान ढूढने की कोशिश की जाये, हुआ यह की आन्दोलन से जुड़े व्यक्तियों को निशाने पर ले लिया गया, और उन पर ब्याक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये पुरे मुद्दे को ही उलझाने और भटकने की कोशिश की गई.
आज के हमारे भारतीय समाज का, सबसे बड़ा "वैचारिक संकट", यही पर से शुरू होता है. वैचारिक शुन्यता का यह दौर बेहद डरावना है. क्या ये सच नहीं है किऐसा करके हम बड़े और गंभीर सवालो से अपना मुह चुरा रहे है? असली सवाल यह है कि क्या व्यक्ति अहम् है या मुद्दे?
हम व्यक्तियों कि आलोचना करके आखिर कब तक, समाज को गहरे तक प्रभावित करने वाली असली मुद्दों से, अपना ध्यान भटकते रहेंगे?
ठीक इसी तरह की अत्यंत गंभीर घटना, पिछले दिनों तब हमारे सामने आई जब भारत के थल सेना अध्यक्ष द्वारा, सेना की तैयारियो के विषय में प्रधान मंत्री को लिखा पत्र, मिडिया में लीक हो गया . इस पत्र में सेना अध्यक्ष ने जो मुद्दे उठाये थे, वो काफी गंभीर किस्म के थे क्योकि उनका सम्बन्ध भारत के आंतरिक और बाह्य सुरक्षा से था. इस पत्र का असली मुद्दा जो आम हिन्दुस्तानी के लिए अहम् था और ज्यादा मायने रखता था, वह ये था कि "क्या सचमुच में, भारतीय सेना के पास उम्दा किस्म के रक्षा उपकरणों कि भरी कमी है? और इससे क्या सेना की तैयारियों में फर्क पड़ रहा है? क्या हमारे समाज के अन्य क्षेत्रो के साथ-साथ, सेना में भी भ्रष्टाचार की जड़े गहरी हो गई है , जिसकी वजह से गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा, घटिया किस्म के उपकरणों की, महगी दामों में खरीद पर, खर्च किया जा रहा है?
अगर देश का सेना अध्यक्ष इन बातो की तरफ ध्यान दिलाये तो निश्चित रूप से यह बेहद गंभीर मुद्दा है, जिस पर व्यापक विचार-विमर्श करके, कोई ठोस हल निकला जाना चाहिए.
लेकिन बजाय इसके हुआ यह कि फिर से एक बार आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. कुछ लोगो ने इसे संवेंदनशील मुद्दा बता कर इससे हाथ झाड़ने कि कोशिश की, तो किसी ने इसे सेना प्रमुख के निजी महत्वाकांक्षाओं से उपजा विवाद बता दिया, किसी को इस बात की ज्यादा चिंता थी कि आखिर यह पत्र लीक कैसे हो गया? तो किसी ने सेना प्रमुख को ही हटाने कि मांग कर डाली.
आखिर में सवाल फिर वही कि हमारी अपनी प्राथमिकता क्या है? "व्यक्ति या विषय". व्यक्तिगत रूप से हमारे लिए सेना प्रमुख महत्वपूर्ण है या उनके द्वारा उठाये गए मुद्दे ?
हमें अपना ध्यान किस और लगाना चाहिए? हमारा सीधा सा मानना है कि व्यक्तियों को निशाना मत बनाइयें बल्कि उनके द्वारा उठाये गए गंभीर मुद्दों को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाइए .
जो समाज अपने समय के ज्वलंत मुद्दों से अपना जी चुराता है, वह समाज कभी भी श्रेष्ठता के ऊँचे स्तरों पर अपने को स्थापित नहीं कर सकता. अगर वाकई हमें अपने आपको विश्व-मानचित्र पर एक श्रेष्ठ शक्ति के रूप में स्थापित करना है, तो हमें अपने समय कि कमियों और चुनौतियों से जूझना होगा और उसका ईमानदारी से हल भी ढूँढना होगा. व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के जरिये, गंभीर मुद्दों को भटकने कि कोशिश, भले ही राजनैतिक रूप से फायदे का विषय हो लेकिन अंततः देश और समाज के सेहत के लिए इसका असर बेहद बुरा होगा इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती.
प्रवीण चौबे दिनांक-05 /04 /2012
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